भारतीय संविधान : भाग और अनुच्छेद (1 से395 तक)

भारतीय संविधान : भाग और अनुच्छेद (1 से395 तक)

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भारतीय संविधान : भाग और अनुच्छेद (1 से395 तक)

भारतीय संविधान – अवलोकन
भारत का संविधान विश्व का सबसे लंबा संविधान है। ऐसे में, किसी एक आलेख में भारतीय संविधान को बाँधना लगभग नामुमकिन है, लेकिन फिर भी हम यहाँ भारतीय संविधान के कुछ ऐसे पहलुओं की चर्चा करेंगे, जिससे आपको इसके विषय में एक मोटा-मोटा अनुमान हो जाए और आपको अपनी तैयारी के दौरान भारतीय संविधान खंड को तैयार करने में कुछ सहायता मिल सके। तो आइए, अब हम अपनी चर्चा को आरंभ करते हैं। सीधे भारतीय संविधान का अवलोकन करने से पूर्व हमें यह समझ लेना चाहिए कि आखिर ‘संविधान’ क्या होता है? किसी अन्य कानून की तुलना में यह कैसे भिन्न होता है? किसी देश की राज्यव्यवस्था में इसका क्या महत्त्व होता है? इन तमाम प्रश्नों के उत्तर संविधान के प्रति आपकी समझ को और बेहतर बनाएँगे तथा आपकी अवधारणात्मक स्पष्टता में वृद्धि करेंगे।

वस्तुतः संविधान किसी देश की ऐसी सर्वोच्च विधि होती है जिसके माध्यम से उस देश का शासन-प्रशासन संचालित किया जाता है। संविधान की सर्वोच्चता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह किसी भी देश में उपस्थित अन्य कानूनों, नियमों, विनियमों इत्यादि की तुलना में प्राथमिक होता है। यानी यदि किसी कानून, नियम, विनियम इत्यादि की व्याख्या को लेकर कोई भी असमंजस पैदा होता है तो इस स्थिति में संविधान में उल्लिखित बात को महत्त्व दिया जाता है और संविधान का उल्लंघन करने वाली किसी भी अन्य विधि को पूर्णतः या अंशतः खारिज़ कर दिया जाता है। किस देश का संविधान उस देश की अन्य विधियों से इस अर्थ में अलग होता है कि संविधान का निर्माण एक समर्पित संविधान सभा द्वारा किया जाता है। संविधान निर्माण की शक्ति किसी देश की विधायिका के पास नहीं होती है। किसी देश की विधायिका संविधान का निर्माण करने के लिए अधिकृत नहीं होती है, बल्कि वह परिस्थितियों के अनुसार सिर्फ उसमें संशोधन कर सकती है। लेकिन संविधान के अतिरिक्त अन्य विधियाँ मूल रूप से देश की विधायिका द्वारा ही बनाई जाती हैं और उनमें संशोधन करने की शक्ति भी देश की विधायिका के पास ही होती है। इसीलिए किसी भी देश की राजव्यवस्था के संचालन में अन्य विधियों की अपेक्षा संविधान का सर्वोच्च स्थान होता है और यदि न्यायपालिका को भी किसी विधि की व्याख्या करनी होती है तो वह संविधान से ही तुलना करके उसकी वैधानिकता की जाँच करती है। यदि कोई विधि पूर्णतः या अंशतः संविधान के किसी प्रावधान का उल्लंघन करती है, तो उस विधि को पूर्णतः या उस विधि के उस हिस्से को, जो संविधान का उल्लंघन करता है, खारिज़ कर दिया जाता है। अतः स्पष्ट है कि संविधान किसी भी देश की वैधानिक व्यवस्था में सर्वोच्च स्थान रखता है।

तो आइए अब अपनी परीक्षा की दृष्टि से भारतीय संविधान के स्वरूप व महत्त्व का परीक्षण करते हैं।

भारतीय संविधान –
भारत में जब औपनिवेशिक शासन अपने अंतिम पड़ाव में था, उसी दौर में भारत में संविधान सभा का गठन कर दिया गया था। भारत में संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर, 1946 को हुई थी। इसके पश्चात् 26 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान लागू होने तक विभिन्न बैठक में आयोजित होती रहीं। चूँकि 15 अगस्त, 1947 को भारत आज़ाद हो गया था, इसीलिए उसके शासन संचालन के लिए संविधान सभा ही विधायिका के तौर पर भी कार्य कर रही थी। अपनी इस यात्रा में 26 नवंबर, 1949 को भारतीय संविधान अंगीकृत कर लिया गया था तथा उसके कुछ प्रावधान उसी दिन लागू कर दिए गए थे।

बहरहाल, 26 जनवरी, 1950 को जो संविधान लागू हुआ था, उसमें 22 भाग, 8 अनुसूचियाँ व 395 अनुच्छेद थे। लेकिन समय के साथ-साथ भारतीय संसद द्वारा इसमें विभिन्न संशोधन किए जाते रहे और वर्तमान में भारतीय संविधान में कुल 25 भाग, 12 अनुसूचियाँ व 395 अनुच्छेद हैं। यहाँ ध्यान देने योग्य है कि भारतीय संविधान में संख्यात्मक दृष्टि से तो 395 अनुच्छेद ही लिखे हुए हैं, लेकिन संशोधन के पश्चात् जोड़े गए नए अनुच्छेदों को विभिन्न उपखंडों के रूप में शामिल किया गया है। इसका उद्देश्य यह रहा कि संपूर्ण संविधान के प्रारूप में कोई बड़ा उथल-पुथल ना करना पड़े। गौरतलब है कि भारतीय संविधान में संशोधन करने की शक्ति सिर्फ भारतीय संसद के पास है। राज्यों की विधायिकाएँ संविधान में संशोधन नहीं कर सकती हैं। भारतीय संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत प्रदान की गई है।

भारतीय संविधान निर्माताओं ने भारत का संविधान निर्मित करते समय उस समय उपस्थित विभिन्न देशों के संविधानों का अध्ययन किया और उनमें से जो काम की बातें भारतीय राजव्यवस्था के लिए उपयुक्त थीं, उन्हें भारत की परिस्थिति के अनुरूप भारतीय संविधान में शामिल कर लिया गया। इस आधार पर विभिन्न विद्वान भारतीय संविधान को उधार का संविधान कहते हैं, लेकिन ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि भारतीय संविधान निर्माताओं ने अन्य देशों के संवैधानिक प्रावधानों को हू-ब-हू नहीं, बल्कि भारत की परिस्थिति के अनुरूप भारतीय संविधान में शामिल किया था और लगभग 75 वर्षों के अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उनका यह निर्णय सही था। चूँकि भारत में औपनिवेशिक शासन उपस्थित था इसीलिए भारतीय लोगों को ब्रिटिश राजव्यवस्था के अनुरूप संसदीय शासन प्रणाली की आदत पड़ चुकी थी, इसीलिए भारतीय संविधान निर्माताओं ने भारत में संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया। भारतीय संविधान का अधिकांश हिस्सा 1935 के भारत शासन अधिनियम से लिया गया है। इसके अलावा, भारतीय संविधान निर्माताओं ने कुछ अन्य देशों के संविधान से भी कुछ प्रावधान अपनाए हैं।

अन्य देशों के संविधानों से अपनाए गए कुछ प्रावधानों का उल्लेख नीचे संक्षेप में किया जा रहा है-

भारतीय संविधान के स्रोत
भारत शासन अधिनियम, 1935 : संघात्मक व्यवस्था, न्यायपालिका का ढाँचा, लोक सेवा आयोग, राज्यपाल का कार्यकाल, आपातकालीन उपबंध इत्यादि।
ब्रिटिश संविधान : संसदीय व्यवस्था, एकल नागरिकता, संसदीय विशेषाधिकार, द्विसदनीय व्यवस्था, विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया, विधायी प्रक्रिया, मंत्रिमंडलीय प्रणाली इत्यादि।
अमेरिकी संविधान : न्यायपालिका की स्वतंत्रता, मूल अधिकार, राष्ट्रपति पर महाभियोग, यथोचित विधि प्रक्रिया, उपराष्ट्रपति का पद, न्यायिक पुनरावलोकन का सिद्धांत इत्यादि।
फ्रांस का संविधान : स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्श, गणतंत्रात्मक स्वरूप।
भूतपूर्व सोवियत संघ का संविधान : मूल कर्तव्य और सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का दर्शन।
आयरलैंड का संविधान : राज्य के नीति निर्देशक तत्व, राज्यसभा के लिए सदस्यों का नामांकन, राष्ट्रपति की निर्वाचन पद्धति इत्यादि।
ऑस्ट्रेलिया का संविधान : संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक का प्रावधान, समवर्ती सूची का उपबंध, व्यापार वाणिज्य और समागम की स्वतंत्रता का उपबंध इत्यादि।
इसके अलावा, अब यदि भारतीय संविधान की विशेषताओं की बात करें इसके स्वरूप को समझने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय संविधान एकात्मक और संघात्मक दोनों व्यवस्थाओं का मिश्रण है। ‘एकात्मक व्यवस्था’ का सामान्य अर्थ होता है कि देश की राजव्यवस्था के संचालन में केंद्र सरकार द्वारा दिए गए आदेश का पालन संपूर्ण देश में किया जाएगा और ‘संघात्मक व्यवस्था’ से आशय है कि केंद्र के साथ-साथ विभिन्न राज्य विधायकाएँ मिलकर देश की राजव्यवस्था के संबंध में निर्णय करेंगी। भारतीय संविधान का एकात्मक स्वरूप ब्रिटिश राजव्यवस्था से, जबकि संघात्मक स्वरूप अमेरिकी राजव्यवस्था से लिया गया है। इसके अलावा, भारतीय संविधान विश्व का सबसे लंबा संविधान है। इसके प्रावधानों में संशोधन की दृष्टि से यह संविधान लचीला व कठोर दोनों ही स्वरूप लिए हुए है। भारत में शासन व्यवस्था के संचालन की ‘संसदीय प्रणाली’ को अपनाया गया है। संसदीय प्रणाली का विचार भारत में ब्रिटिश राजव्यवस्था से लिया गया है।

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भारतीय संविधान : भाग और अनुच्छेद (1 से395 तक)

भारतीय संविधान – भाग, उनके शीर्षक और उनसे संबंधित अनुच्छेद
आईएएस परीक्षा की दृष्टि से भारतीय संविधान के कुछ भागों को छोड़कर लगभग सभी भाग महत्त्वपूर्ण हैं। अब हम संविधान के समस्त भाग, उनके शीर्षक और उनसे संबंधित अनुच्छेदों का संक्षिप्त अवलोकन कर लेते हैं-

भाग-1 : संघ और उसका राज्यक्षेत्र (अनुच्छेद 1-4)
भाग-2 : नागरिकता (अनुच्छेद 5-11)
भाग-3 : मूल अधिकार (अनुच्छेद 12-35)
भाग-4 : राज्य के नीति निदेशक तत्व (अनुच्छेद 36-51)
भाग-5 : संघ (अनुच्छेद 52-151)
भाग-6 : राज्य (अनुच्छेद 152-237)
भाग-8 : संघ राज्य क्षेत्र (अनुच्छेद 239-242)
भाग-9 : पंचायतें (अनुच्छेद 243-243 ण)
भाग-9 क : नगरपालिकाएँ (अनुच्छेद 243 त – 243 य छ)
भाग-9 ख : सहकारी समितियाँ (अनुच्छेद 243 य ज – 243 य न)
भाग-10 : अनुसूचित और जनजातीय क्षेत्र (अनुच्छेद 244-244 क)
भाग-11 : संघ और राज्यों के बीच संबंध (अनुच्छेद 243-263)
भाग-12 : वित्त, संपत्ति, संविदाएँ और वाद (अनुच्छेद 264-300 क)
भाग-13 : भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर व्यापार, वाणिज्य एवं समागम (अनुच्छेद 301-307)
भाग-14 : संघ और राज्यों के अधीन सेवाएँ (अनुच्छेद 308-323)
भाग-14 क : अधिकरण (अनुच्छेद 323 क – 323 ख)
भाग-15 : निर्वाचन (अनुच्छेद 324-329 क)
भाग-16 : अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, पिछड़े वर्गों एवं आंग्ल-भारतीयों के संबंध में विशेष उपबंध (अनुच्छेद 330-342)
भाग-17 : राजभाषा (अनुच्छेद 343-351)
भाग-18 : आपात उपबंध (अनुच्छेद 352-360)
भाग-19 : प्रकीर्ण (अनुच्छेद 361-367)
भाग-20 : संविधान का संशोधन (अनुच्छेद 368)
भाग-21 : अस्थायी, संक्रमणकालीन और विशेष उपबंध (अनुच्छेद 369-392)
भाग-22 : संक्षिप्त नाम, प्रारंभ, हिंदी में प्राधिकृत पाठ और निरसन (अनुच्छेद 393-395)
इस प्रकार, हमने भारतीय संविधान में वर्णित समस्त 22 भागों व उनसे संबंधित अनुच्छेद का संक्षिप्त अवलोकन किया है। इनमें से कुछ भागों को छोड़कर लगभग सभी भागों से संघ लोक सेवा आयोग आईएएस परीक्षा प्रणाली के प्रारंभिक परीक्षा व मुख्य परीक्षा चरण में प्रश्न पूछता रहा है। इसके अलावा साक्षात्कार के दौरान भी अभ्यर्थियों से प्रत्यक्षतः व अप्रत्यक्षतः भारतीय संविधान खंड से प्रश्न पूछे जाते हैं। इनमें भी यदि सबसे महत्त्वपूर्ण भागों की बात करें तो भारतीय संविधान का भाग – 3, 4, 5, 6, 9, 9 क, 11, 15, 18 और 20 से प्रश्न पूछे जाने की प्रायिकता अधिक होती है। यदि आपने ऊपर दी गई संविधान के भागों की सूची पर गौर किया हो तो आप पाएँगे कि वहाँ पर भाग-7 अनुपस्थित है। इसका कारण यह है कि भारतीय संविधान में फिलहाल भाग 7 नहीं है तथा इससे संबंधित अनुच्छेद 238 भी संविधान में नहीं है। संविधान लागू होने के समय अर्थात् मूल संविधान में तो यह भाग उपस्थित था, लेकिन 7वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1956 के माध्यम से इस भाग का लोप कर दिया गया था। इस प्रकार, वर्तमान में भारतीय संविधान में संख्या की दृष्टि से तो 22 भाग उपस्थित हैं, मगर गणना की दृष्टि से इनकी संख्या 25 है। ठीक ऐसे ही, भारतीय संविधान में संख्या की दृष्टि से 395 अनुच्छेद हैं, लेकिन गणना की दृष्टि से इनकी संख्या 450 के आसपास है।

भारतीय संविधान – 8 अनुसूचियाँ
अब यदि भारतीय संविधान में उपस्थित अनुसूचियों पर विचार करें, तो मूल संविधान में तो 8 अनुसूचियाँ उपस्थित थीं, लेकिन वर्तमान में इनकी संख्या बढ़कर 12 हो गई है। जिस प्रकार से हमने संविधान के सभी भागों का जायजा लिया, उसी प्रकार से हम संविधान की सभी 12 अनुसूचियों का भी संक्षिप्त अवलोकन कर लेते हैं-

अनुसूची-1 : राज्यों और संघ राज्यक्षेत्रों का विवरण
अनुसूची-2 : विभिन्न पदाधिकारियों के वेतन, भत्तों व पेंशन से जुड़े प्रावधान
अनुसूची-3 : विभिन्न पदाधिकारियों व प्रत्याशियों द्वारा ली जाने वाली शपथों व प्रतिज्ञानों के प्रारूप
अनुसूची-4 : राज्यों व संघ राज्यक्षेत्रों के लिए राज्यसभा में सीटों का आवंटन
अनुसूची-5 : अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन तथा नियंत्रण से संबंधित प्रावधान
अनुसूची-6 : असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम राज्यों के जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित उपबंध
अनुसूची-7 : संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची तथा इन सूचियों में शामिल विषय
अनुसूची-8 : भारतीय संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त भाषाओं की सूची (वर्तमान में इस सूची में कुल 22 भाषाएँ शामिल हैं।)
अनुसूची-9 : न्यायिक पुनर्विलोकन से सुरक्षा प्राप्त विधियों की सूची (इसे पहले संविधान संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा भारतीय संविधान में शामिल किया गया था।)
अनुसूची-10 : दल बदल विरोधी कानून से संबंधित उपबंध (इसे भारतीय संविधान में 52वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1985 के माध्यम से शामिल किया गया था।)
अनुसूची-11 : पंचायतों की शक्तियों व ज़िम्मेदारियों से संबंधित प्रावधान (इसे भारतीय संविधान में 73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा शामिल किया गया था।)
अनुसूची-12 : नगरपालिकाओं की शक्तियों व ज़िम्मेदारियों से संबंधित प्रावधान (इसे भारतीय संविधान में 74वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा शामिल किया गया था।)
इस प्रकार, हमने देखा कि भारतीय संविधान में राजव्यवस्था संबंधी तमाम उपबंधों का काफी विस्तृत विवेचन किया गया है। यही कारण है कि भारतीय संविधान विश्व का सबसे लंबा संविधान बन गया है। भारतीय संविधान में नागरिकों व्यक्तियों दोनों के मूल अधिकारों पर विशेष बल दिया गया है यदि किसी व्यक्ति के अथवा नागरिक के मूल अधिकार का उल्लंघन सरकार अथवा किसी व्यक्ति द्वारा किया जाता है तो वह सीधे न्यायालय के पास जा सकता है। भारतीय संविधान में वर्णित मूल अधिकार खंड की सबसे प्रमुख बात यह है कि मूल अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में न्यायालय के पास जाने का अधिकार भी व्यक्ति व नागरिक का मूल अधिकार है। यह संविधान निर्माताओं की दूरगामी सोच को दर्शाता है। इसके साथ-साथ भारतीय संविधान में उन तमाम समस्याओं के निराकरण पर बल दिया गया है, जो भारत की स्वतंत्रता से पूर्व सामाजिक व आर्थिक विकास में बाधक बनी हुई थीं। फिर इसमें चाहे समाज के आपसी सामंजस्य की बात हो अथवा किसी नई परिपाटी व तकनीक को अपनाने की बात, इन तमाम आयामों पर भारतीय संविधान एकदम खरा उतरता है। यही कारण है कि आजादी के पश्चात् से अब तक भारत के विकास में भारतीय संविधान ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है और अभी भी यह निरंतर भारत की विकास यात्रा में प्रभावी योगदान दे रहा है।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना
भारतीय संविधान के उपरोक्त वर्णित इन तमाम खंडों के अलावा संविधान का ऐसा खंड भी है, जिसकी चर्चा के बिना भारतीय संविधान की चर्चा मुकम्मल नहीं हो सकती है और यह है- ‘संविधान की प्रस्तावना’। पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत किए गए ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ को ही आगे चलकर भारतीय संविधान की प्रस्तावना के रूप में स्वीकार किया गया था। आरंभ में इस बात को लेकर विवाद था कि प्रस्तावना भारतीय संविधान का अंग है अथवा नहीं और भारतीय संसद इसमें संशोधन कर सकती है अथवा नहीं? लेकिन समय के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया की प्रस्तावना भारतीय संविधान का अंग है और संसद इसमें संशोधन करने के लिए पूर्णतः अधिकृत है। अब तक संसद ने संविधान की प्रस्तावना में एक बार संशोधन किया है। दरअसल प्रस्तावना को उद्देशिका के नाम से भी जाना जाता है। इसका आशय है कि प्रस्तावना में उन उद्देश्यों का उल्लेख किया गया है, जो हम संविधान के क्रियान्वयन के माध्यम से प्राप्त करना चाहते हैं। इसमें उल्लिखित है कि भारत एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक, गणराज्य होगा। इसके नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय मिलेंगे तथा उन्हें विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्राप्त होगी तथा उन सबके लिए प्रतिष्ठा और अवसर की समता सुनिश्चित की जाएगी। भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारतीय संविधान के उद्देश्यों को परिलक्षित करती है।

इसके अलावा, भारतीय संविधान में राज्य के नीति निदेशक तत्वों के रूप में कुछ निर्देशक सिद्धांतों का भी उल्लेख किया गया है, जो राज्य को नीति निर्माण में सहायता प्रदान करते हैं। इसके अतिरिक्त, 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से पंचायतों और नगरपालिकाओं को भी संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया, इसका मूल उद्देश्य सत्ता का विकेंद्रीकरण सुनिश्चित करना और गांधीवादी दर्शन को मूर्त रूप प्रदान करना है। संविधान में ही केंद्र और राज्य के बीच शक्तियों का पृथक्करण भी किया गया है और यदि इन दोनों निकायों में किसी भी तरह का विवाद होता है तो इसके लिए विवाद समाधान की जिम्मेदारी सर्वोच्च न्यायालय को सौंपी गई है। साथ ही, सर्वोच्च न्यायालय को एक स्वतंत्र निकाय के रूप में स्थापित किया गया है, ताकि वह तटस्थ रहकर देश के संघात्मक ढाँचे में उभरने वाले किसी भी विवाद को पूर्ण क्षमता के साथ सुलझा सके।

निष्कर्ष
भारतीय संविधान में सर्वोच्च न्यायालय को मूल अधिकारों का संरक्षक घोषित किया गया है अर्थात् यदि विधायिका द्वारा बनाई गई कोई विधि मूल अधिकारों का उल्लंघन करती है, तो वह उस मात्रा में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दी जाएगी, जितनी मात्रा में वह मूल अधिकार का उल्लंघन करती है। इसका अर्थ है कि संविधान में उल्लिखित मूल अधिकार विधायिका की कानून निर्माण की शक्तियों पर सीमाएँ आरोपित करते हैं। भारतीय संविधान में न्यायपालिका को न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति भी दी गई है। अपनी शक्ति के तहत न्यायालय विधायिका द्वारा बनाई गई विधियों की संवैधानिकता की जाँच करते हैं और यदि कोई विधि संवैधानिक दायरे का अतिक्रमण करती हुई पाई जाती है तो उसे न्यायपालिका द्वारा खारिज कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया के माध्यम से न्यायपालिका मूल अधिकारों का संरक्षण सुनिश्चित करती है। न्यायपालिका ने धीरे-धीरे इसी पद्धति पर कार्य करते हुए 24 अप्रैल, 1973 को एक ऐतिहासिक केशवानंद भारती मामले में मूल ढाँचे का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। इस निर्णय की मूल बात यह थी कि भारतीय संसद संविधान में संशोधन तो कर सकती है, लेकिन संविधान का एक ऐसा आधारभूत ढाँचा है, जिसे संसद संशोधित नहीं कर सकती है और न्यायलय ने धीरे-धीरे अनेक प्रावधानों को संविधान का मूल ढाँचा घोषित किया, जैसे- गणतंत्रात्मक व्यवस्था, पंथनिरपेक्षता, मूल अधिकार इत्यादि।

इन तमाम उपबांधों के अलावा, भारतीय संविधान में निर्वाचन, आपातकाल, राजभाषा, लोक सेवाओं, अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन इत्यादि से संबंधित प्रावधान भी किए गए हैं। वैसे तो भारत के इतने विस्तृत संविधान को एक आलेख में बाँध पाना संभव नहीं है, लेकिन फिर भी हमने यहाँ कोशिश की है कि आपको इस आलेख के माध्यम से भारतीय संविधान के दर्शन, उसके प्रमुख प्रावधानों, उसके प्रारूप, उसके इतिहास इत्यादि के बारे में मोटा-मोटा अनुमान लग जाए और आप भारतीय संविधान का अध्ययन करने में थोड़ी सहूलियत महसूस कर सकें। हमने इस आलेख में कुछ मुद्दों पर आप की अवधारणा तक समझ विकसित करने की कोशिश की है और आपको कुछ ऐतिहासिक तथ्य बतलाने का भी प्रयास किया है। हम उम्मीद करते हैं कि इस आलेख को पढ़ने के बाद आप भारतीय संविधान के संबंध में थोड़ा सहज महसूस करेंगे तथा यह समझ पाएँगे कि आपको अपनी तैयारी के दौरान भारतीय संविधान के किन खंडों पर अधिक ध्यान देना है।

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